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” फ़ैज़ ” हूं मै
आज भी रक्खी है
छिपाकर ह्रदय की कारा मे
प्रेम पाती जो कभी दे न सका
आज तक लिख रहा हूं वो पाती
दर्ज होते रहेंगे नाम तेरे
शब्द यहां
कितने परिचित हैं ये
तुम्हारी खुशबू से
जो कभी मेरे हर एक रोम को
महकातीं थीं
आज भी वीथियां खींच लाती हैं
अक्सर मुझको
जहां दो चार कदम साथ चला करते थे
जहां अनायास तेरे रूप की,चंचलता की
मद भरे नैनों की इनायत सी हुआ करती थी
जिस गली तेरे दुपट्टे की महक को घोले
किसी खिड़की से मदहोश हवा चलती थी
और वो छत भी
सुनाता है कहानी तेरी
जिसमें तेरे कदमों की
चंचंल सी धमक बाकी है
और क्या बताऊं
इन आखों की व्यथा
जिसने देखा था तुझे
देखे जाने की हद तक
जिसने रोपा था बीज चाहत का
जिसने देखा था मुझे
बेशर्त समर्पित होते
कितने उपकार किए तेरे विरह ने मुझ पर
कैसे समझाऊं मुझे शब्द तो मिलते ही नही
दिल ने देखा दर्द का मंजर
और देखीं सच्चाई की रोशन राहें
तुमने जो खोलीं खिड़कियां मन की
जिसमें से दिखती है एक अलग सी दुनिया
जहां पे भूख है,मजबूरी है
सर्द चेहरे हैं,सर्द आहें हैं
जहां आखों से रेत बहती है
जहां मनहूस हवा चलती है
जहां पे दिखती हैं
अंधेरी सीली गलियां
जहां निवालों पे
गिद्धों सी आंख रहती है
जहां कोई भूखा पेट भरने को
अपना ही गोश्त बेच देता है
जहां चमकते से भव्य महलों मे
होता रहता है रूह का सौदा
और उतर जाती है
गोलियां सीने मे
जब ऎसी दुनिया
बदलने की बात होती है
तुमने जो दी थी एक चिन्गारी
उससे एक शम्मा जला रक्खी है
————–अपने प्रिय शायर ” फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ” को समर्पित
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