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संचित स्मृतियों में वे दिन
शोभा तेरे उस चितवन की
एक झलक को खिलता अंतर्मन
रुक जाती सी दिल की धड़कन
उम्मीदों ने आ आके कहा
बेकल सी घड़ियाँ बीत चलीं
जागी हुई रात की आँखों में
जब आहट की लौ चमक उठी
आँखों के क्षितिज पर अब होगी
सूर्योदय की सुन्दर लाली
मन उपवन पर बिखरेगी
जब धूप सुनहरी मतवाली
उम्मीद यही थी ऐ प्रियवर
फिर शाम विरह की ना होगी
पर ऐसा कब होना था
तेरे आँचल की छत नहीं मिली
वह धूप विरह – दोपहरी की
पीड़ा में नमी भी सोख चली
पथराई आँखों ने देखा
आकाश हुआ था बिन बदरी
हर सुबह उठा चल देता था
मै तीव्र उम्मीदों की गठरी
उम्मीदों ने आ आके कहा
बेकल सी घड़ियाँ बीत चलीं
जागी हुई रात की आँखों में
जब आहट की लौ चमक उठी
ठंडी सी चांदनी रातों में
मै टूटा ह्रदय लिए फिरता
चंदा से गलबहियां करता
कुछ मलय मै बाहों में भरता
मै पथिक एकाकी यादों का
इक हूक सदा उठती रहती
चलते चलते इक दिन यूं ही
फिर देखे कुछ टूटे से दिल
जीवन की भटकती साँसों में
जीते रहते थे जो तिल तिल
एकाकीपन ने विलय किया
सूखी धरती बंजर धरती
वे प्रेम पथिक हरगिज न थे
पर मेरी तरह ठुकराए हुए
इंसानों के जिन्दा मरघट में
थे स्वप्न के शव दफनाए हुए
ये निर्धन रेगिस्तानो की
थी टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी
उम्मीदों ने आ आके कहा
बेकल सी घड़ियाँ बीत चलीं
जागी हुई रात की आँखों में
जब आहट की लौ चमक उठी
मेरी पीड़ा अहसासों की
थी वास्तु सत्य उनकी पीड़ा
वे मात्र जलालत के ताने
चीथड़े बदन वे बेपर्दा
जब भूख निवाला बन जाए
फिर पीठ पेट की क्या दूरी
तोड़े होंगे मैंने भी दिल
कोई पेट नहीं मैंने तोड़ा
था बोझ बहुत ही अंतस पर
पर दाग नहीं मैंने छोड़ा
इस राह जो हम तुम मिल बैठे
चलो भींच ले सब अपनी मुट्ठी
उम्मीदों ने आ आके कहा
बेकल सी घड़ियाँ बीत चलीं
जागी हुई रात की आँखों में
जब आहट की लौ चमक उठी
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