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नागरिक पेण्डुलम

mera mat
mera mat
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एक रिश्ता समानान्तर
व्यवस्था और गणतन्त्र का
जैसे समय पथ पर
परावर्तन तन्त्र का
सपनो के सूर्योदय से
उपलब्धियो के छलावो तक
एक सी नियति लिए
विपथन के प्रभावो तक
एक निरन्तर टूटन को
झेलते हुए
मुद्दो की गेन्द सदनो मे
खेलते हुए
नागरिक और तन्त्र का मिश्रण प्रदूषित हो गया है
आदमी है ठगा सा पाथेय सारा खो गया है
ढक रहा है
क्षितिज अब विस्तार को
हर एक छल गहरा रहा
दरार को
किस तरह सूर्यास्त सा
वो धूप खोता जा रहा है
आदमी गणतन्त्र मे
एकाकी होता जा रहा है
राजनीतिक प्रश्न का व्यापार
फलता फूलता है
अपने ही मूल्य पर हर एक नागरिक
पेण्डुलम सा झूलता है

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