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हर खाक से निकलकर जलते चले गए

mera mat
mera mat
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इक डोर के दो छोर हम थामे रहे सदा
और फासलों के साथ निकलते चले गए
हसरतों की आग तो बुझने न दी कभी
हर खाक से निकलकर जलते चले गए

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